हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,फ़ौजी संगठनों में ट्रेनिंग पाने और ऊंचे ओहदों तक पहुंचने वाले ज़्यादातर लोगों के पास, जो इस माहौल में पहुंचने से पहले जो भी नज़रिया और मेज़ाज रखते हों, फ़ौजी संगठन और माहौल में ख़ुद को ढालने के लिए अपने रवैये और नज़िरये को बदलने के अलावा कोई चारा नहीं होता। इस माहौल का तक़ाज़ा यह है कि अगर कोई हुक्म इंसान की सोच और व्यक्तिगत नज़रिये के ख़िलाफ़ भी है तब भी उस पर अमल किया जाए। स्वाभाविक सी बात है कि इस तरह के माहौल में ढलना और उसे बर्दाश्त करना, कठिन और थका देने वाला होता है। इस माहौल का सबसे अहम नतीजा सारे सदस्यों की सोच, नज़रिये और रवैये को एक जैसा बनाना है। अलग तरह के ऑप्रेशन्ज़ और जंग के मुख़्तलिफ़ मैदानों में काम कर चुके एक तजुर्बेकार कमांडर की हैसियत से शहीद क़ासिम सुलैमानी बड़े हैरतअंगेज़ तरीक़े से एक आला दर्जे के फ़ौजी कमांडर की ज़िम्मेदारियों, जिनमें से कुछ बहुत ही ख़ुश्क और पूरी तरह डिसिप्लिन वाली ज़िम्मेदारियां थीं और अख़लाक़ी मूल्यों पर अमल करने वाले एक इंसान, हमदर्द बाप और मेहरबान दोस्त के किरदार के बीच बहुत रोचक और कलात्मक तरीक़े से तालमेल बनाने में कामयाब हुए। इस लेख में शहीद अलहाज क़ासिम सुलैमानी की कुछ अहम ख़ुसूसियतों का सरसरी तौर पर जायज़ा लिया गया है।
सादगी और विनम्रता
चाहे व्यक्तिगत ज़िन्दगी हो या जंग का मैदान हो, शहीद क़ासिम सुलैमानी अपने पहनावे और रहन सहन के लेहाज़ से भी और बर्ताव के लेहाज़ से भी बहुत विनम्र मेज़ाज के थे। अपने ओहदे के बरख़िलाफ़ उनकी ज़िन्दगी के संसाधन एक आम इंसान की तरह ही थे। ज़्यादातर प्रोग्रामों में जैसे शहीदों और अपने साथियों के जनाज़े के जुलूस, शहीदों के घरवालों और शहीदों के बच्चों से मुलाक़ात, तक़रीरों और अवाम से मुलाक़ातों में वह बिना किसी प्रोटोकोल के शरीक होते थे। वह इस बात से बड़ी शिद्दत से परहेज़ करते थे कि प्रोग्रामों या बैठकों में तवज्जो का केन्द्र बनें। यहाँ तक कि एक बार किसी प्रोग्राम में तय पाया था कि दाइश को शिकस्त देने पर इस्लामी जुम्हूरिया ईरान की क़ुद्स फ़ोर्स को सम्मानित किया जाए, शहीद सुलैमानी को यह भनक लग गई कि ख़ुद उन्हें सम्मानित करने का प्रोग्राम है तो उन्होंने इस प्रोग्राम में शिरकत ही नहीं की और अपनी तरफ़ से एक नुमाइंदे को भेज दिया। उनकी यह सादगी और विनम्रता, जंग के मैदान में भी और उनके साथियों के बीच भी बहुत वाज़ेह थी। सिहापियों से उनका रिश्ता कमांडर और सिपाही से ज़्यादा बाप-बेटे या दो भाइयों वाला था। उनके मातहत सिपाही फ़ौजी क़ानून और डिसिप्लिन से ज़्यादा उनसे मोहब्बत और अपनी दिली ख़्वाहिश की बिना पर उनके हुक्म की तामील करते थे। उनकी सादगी और इंकेसारी का अहम नमूना यह था कि सभी उन्हें, उनके नाम से पहचानते थे और फ़ौजी रैंक के बजाए, उनके नाम से पुकारते थे और कहते थेः हाज क़ासिम!
जंग के मैदान में भी अख़लाक़ी वैल्यूज़ पर पूरी तवज्जो
जंग के इलाक़ों में, जहाँ जंगी हथियारों की फ़ायरिंग की आवाज़ हर तरफ़ से सुनाई देती है, शहीद क़ासिम सुलैमानी मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर ख़ुद को दाइश के ख़िलाफ़ कठिन ऑप्रेशनों के लिए तैयार करने वाले प्रतिरोध के जियालों के लिए मुख़्तसर तक़रीर किया करते थे। जंग के हालात से परिचित लोगों के लिए जनरल सुलैमानी की अख़लाक़ी बातों के सिलसिले में शायद सबसे पहला ख़याल यह आए कि वह अपने जांबाज़ों और फ़ोर्सेज़ को यह नसीहत कर रहे होंगे कि जंगी क़ैदियों के साथ बुरा बर्ताव न करें या औरतों और बच्चों के साथ बुरा सुलूक न करें। हक़ीक़त यह है कि शहीद क़ासिम सुलैमानी एक सच्चे मुसलमान सिपाही की हैसियत से इन सारी चीज़ों का बहुत बारीकी से ख़्याल रखते थे। उनकी अख़लाकी महानता का एक छोटा सा पहलू उनकी इस बात से झलकता हैः ʺहमें, जो यहाँ (जंग के मैदान में) मौजूद हैं, हलाल और हराम पर गहरी नज़र रखनी चाहिए...हम, दूसरों के घरों को मनमाने ढंग से इस्तेमाल नहीं कर सकते।ʺ जंग के इलाक़े में मौजूद ग़ैर फ़ौजी लोगों के जिस्म और जज़्बात को किसी तरह का कोई नुक़सान न पहुंचे, यह शहीद सुलैमानी के जंग के मैदान के अख़लाक़ का बुनियादी उसूल था और इस अख़लाक़ की बुनियाद इस्लाम की मूल शिक्षाएं और इस्लामी विचार थे।
एक बार सीरिया में दाइश के साथ जारी जंग में किसी इलाक़े में जनरल सुलैमानी ने किसी वीरान घर में नमाज़ पढ़ी तो नमाज़ के बाद एक ख़त में घर के मालिक से नमाज़ पढ़ने की इजाज़त मांगी और अपना पता और टेलीफ़ोन नंबर तक उस घर में रख दिया ताकि बाद में घर के मालिक को अगर उनके वहाँ नमाज़ पढ़ने पर कोई एतराज़ हो या कोई मुतालेबा हो तो वह उसे पेश कर सके।
इसी तरह लड़ाई के दौरान एक जंगी इलाक़े के मुआयने की जनरन सुलैमानी की एक क्लिप मौजूद है जिसमें अचानक वह एक घबराई हुयी गाय को देखते हैं। वह ड्राइवर से गाड़ी रोकने के लिए कहते हैं और गाय के क़रीब जाकर खाने पीने की चीज़ें उसे देते हैं। शहीद जनरल सुलैमानी का अख़लाक़ के लेहाज़ से चिंता का दायरा इतना व्यापक था उसमें ईरान के पहाड़ी इलाक़े के हिरन भी आते थे। इराक़ में दाइश के ख़िलाफ़ जंग के दौरान, ठंडक के मौसम में, उन्होंने आईआरजीसी की कमान के हेडक्वार्टर से संपर्क किया और अपने साथियों से कहा कि वह छावनी के क़रीब के हिरनों के लिए, जो क़रीब के पहाड़ में ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, चारा रख दें क्योंकि सर्दी के मौसम में इन हिरनों के लिए अपने लिए चारा ढूंढना बड़ा कठिन होगा।
जनरल सुलैमानी की अज़ीम शख़्सियत का राज़
शहीद जनरल सुलैमानी जहाँ फ़ौजी और स्ट्रैटिजिक मामलों की पहचान में इतनी महारत रखते थे कि साम्राज्यवादी मोर्चे में उनके दुश्मन तक उनकी फ़ौजी ताक़त व सलाहियत के क़ायल थे, वहीं अख़लाक़ी बारीकियां उनके लिए इनती अहम थीं कि अपने बहुत ही व्यस्त मन में भी वह उनके लिए मुनासिब सोच और अमल के लिए गुंजाइश निकाल लेते हैं। जनरल सुलैमानी की इतनी बहुमुखी शख़्सियत की इस कैफ़ियत की वजह उनके विचारों और नज़रियों में ढूंढी जा सकती है।
सुप्रीम लीडर आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई जनरल सुलैमानी की शख़्सियत के बारे में कहते हैः ʺवह हक़ीक़त में सबके लिए क़ुरबानी का जज़्बा रखते थे। दूसरी ओर वह ख़ुलूस से काम करने वाले आध्यात्मिक और परहेज़ागर आदमी थे, उनमें सही अर्थों में आध्यात्मिकता थी और ज़रा भी दिखावा नहीं करते थे। अलग अलग दुश्मनों के मुक़ाबले में वह अलग अलग मुल्कों के बियाबानों और पहाड़ी इलाक़ों में गए। वह इस्लाम और इमाम ख़ुमैनी की दर्सगाह में परवान चढ़ने वालों में नुमायां इंसान थे, उन्होंने अपनी पूरी उम्र अल्लाह की राह में जेहाद करते हुए गुज़ार दी।